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भारतीय किसान पर कविता - मैं हूं एक किसान, वो ही किसान कहलाता है

साथियों, बिना गाँव और बिना किसान किसी भी देश का संपूर्ण होना संभव नहीं है। अगर देश के अन्नदाता न हों तो देश भूखा ही मर जाए। साथियों, हम सब जानते हैं की भारत देश सदियों से एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन समय की विडंबना देखिए की कृषि प्रधान देश के किसान की माली हालत बद से बदतर होती जा रही है और आज किसान अलग-अलग कारणों की वजह से अपनी जान गंवा रहे  हैं। धन्य हैं वो किसान जो अपनी मेहनत से दूसरों का पेट भरते हैं। उन्हीं किसानों को समर्पित है हमारी आज की दो कविताएं, जिनके शीर्षक हैं - "मैं हूं एक किसान" और "वो ही किसान कहलाता है"।                                               साथियों, हमने इस लेख के माध्यम से भारतीय किसानों की एक तस्वीर आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, आशा करते हैं आपको पसंद आएगा। 

मैं हूं एक किसान 

 मैं हूँ भारत की शान,

मानसून की बाट जोहता किसान,

कभी मुआवजे के इन्तजार में गरीब इंसान,

तो राजनीति में एक वोट बैंक का नाम,

हां जी मैं हूँ एक किसान।


बताते मुझे मैं हूँ अन्नदाता,

पशु, खेत, फसल से मेरा नाता,

सारा जहाँ मेरी मेहनत से खाता,

क्योंकि मैं हूँ अन्नदाता।


पर मेरा अपना रोना है,

उम्मीद से उठना निराशा संग सोना है,

मानसून द्वारा मेरी मेहनत को धोना है,

सरकार के लिए मेरा जीवन खिलौना है,

यही मेरा रोना है।


हां मैं हूँ किसान

      मेरे नाम ढेरों योजनाओं के नाम,

 सरकार कर रही मेरे लिए हजारों काम,

    चाहे दिलाना मुझे फसल के अच्छे दाम,

                     ताकि खुशहाली में कटे मेरी सुबह-शाम,

                          बस यहीं मेरी तकदीर ख़राब है।


मेरे हाल चाल में नेताओं का हिसाब है,

  किसान के अन्न में छिपा सरकारी लाभ है,

    मेरी खुशहाली एक राजनीतिक किताब है,

बस यहीं सबकुछ बेहिसाब है।


मैं किसान हल जोतना पहचान,

किन्तु बना हूँ सत्ता की दूकान,

पार्टियां चाहे मुझसे अपनी-अपनी मुस्कान,

बदनाम कर मुझे कमाना चाहे अपना नाम,

मैं हूँ एक आसान शिकारी इंसान,

 क्योंकि मैं हूँ एक किसान।।


* वो ही किसान कहलाता है

जो व्याकुल बच्चों के चेहरे देख-देख अकुलाता है,

मौसम और महाजन के जुल्मों से तंग हो जाता है,

जिस ललाट के स्वेद रक्त से धरती तर हो जाती है,

भारत में अब तक यारो, वो ही किसान ही कहलाता है ।


कसी हुईं बाजू मजबूत, हथेली में बल रखता है 

एक हाथ में डोर वृषभ की , कांधे पर हल रखता है 

कड़ी धूप में तिल तिल जलकर, होम वहीं हो जाता है

भारत में अब तक यारो, वो ही किसान कहलाता है।


रस्म रिवाजों की खातिर जो कर्जे में दब जाता है, 

बिमारी में आज भी जिसको हाथ फैलाना पड़ता है, 

सबकी भूख मिटाने वाला वो खुद भूखा रह जाता है, 

भारत में अब तक यारो, वो ही किसान कहलाता है।।


                                                                               जय हिंद !



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